राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दलित
मृत्युंजय कुमार झा
(स्वयंसेवक) आर.एस.एस
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दलित
दलित शब्द कब, कहाँ और क्यों प्रचलित हुआ, इस पर कई मत हैं। कहते हैं कि विदेशी हमलावरों ने जिन क्षेत्रों को जीता, वहाँ तलवार के बल पर धर्मांतरण कराया गया। धर्मांतरित लोगों को पुरस्कृत और शेष का व्यापक संहार किया गया। जो फिर भी बच गए, उनका दलन और दमन कर घृणित कामों में लगा दिया गया। सैकड़ों साल तक ऐसा होने पर ये लोग 'दलित' कहलाने लगे, जबकि ये प्रखर हिंदू थे। इनमें से अधिकांश क्षत्रिय थे और इनके राज्य भी थे; पर पढ़ने का अधिकार तथा खेती की जमीनें छिनने से इनकी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और शैक्षिक दशा बिगड़ती गई और ये अलग-थलग पड़ गए। अंग्रेजों ने अपने समय में जनगणना के दौरान षड्यंत्रपूर्वक इन भेदों को और बढ़ाया। आजकल सरकारी भाषा में इस वर्ग को 'अनुसूचित जाति' कहते हैं।
आजादी के बाद सबने सोचा था कि यह स्थिति बदलेगी; पर वोट के लालची सत्ताधीशों ने कुछ नहीं किया। अब चूँकि ये बहुत बड़ा वोटबैंक बन चुके हैं, इसलिए सब दलों की इन पर निगाह है। अतः सभी दल एक-दूसरे को दलित-विरोधी बताते हैं। कई नेता सांस्कृतिक तथा अराजनीतिक संगठन होते हुए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस बहस में घसीट लेते हैं।
संघ यद्यपि इस सामाजिक
विभाजन को ठीक नहीं मानता; पर जमीनी सच तो
यह है ही। इसलिए 'जाति तोड़ो'
जैसे राजनीतिक आंदोलन चलाने की बजाय संघ शांत
भाव से इनकी आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति सुधारने का प्रयास कर रहा है। अपने गली-मोहल्ले के लोगों
के सुख-दुःख में सहभागी होना स्वयंसेवक का स्थायी स्वभाव है, इसलिए विरोधी विचार वाले भी उसका आदर करते हैं।
आपातकाल के बाद संघ का नाम और काम बढ़ने पर सेवा-कार्यों को संगठित रूप दिया गया। सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस का इस पर बहुत जोर था। 1989 में संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जन्मशती वर्ष का केंद्रीय विचार सेवा ही था। अतः संघ की रचना में भी 'सेवा विभाग' शामिल कर हर राज्य में 'सेवा भारती' आदि संस्थाओं का गठन किया गया। ये संस्थाएँ नगर तथा गाँवों की निर्धन बस्तियों में शिक्षा, चिकित्सा तथा संस्कार के काम करती हैं। डॉ. हेडगेवार जन्मशती के अवसर पर 'सेवा निधि' एकत्र कर पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक विशाल मालिका तैयार की गई। इनके बल पर आज स्वयंसेवक डेढ़ लाख से भी अधिक सेवा प्रकल्प चला रहे हैं।
कुछ संस्थाएँ ग्राम्य
विकास के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। संघ के अलावा भी देश भर में हजारों संस्थाएँ
सच्चे मन से सेवा में संलग्न हैं। इनमें समन्वय बना रहे तथा वे एक-दूसरे के अनुभव
का लाभ उठाएँ, इसके लिए 'राष्ट्रीय सेवा भारती' का गठन हुआ है।
अब हर राज्य में 'सेवा संगम' आयोजित किए जाते हैं। इनमें सैकड़ों संस्थाएँ
अपने स्टॉल तथा प्रदर्शिनी आदि लगाती हैं। इससे छोटी संस्थाओं को भी पहचान मिलती
है। हर पाँचवें साल इनका राष्ट्रीय सम्मेलन भी होता है।
अधिकांश हिंदू मंदिर तथा
धार्मिक संस्थाएँ भी कुछ सेवा के काम करती हैं। इन्हें एक-दूसरे से जोड़ने के लिए
कई राज्यों में हिंदू आध्यात्मिक मेले प्रारंभ हुए हैं। सेवा निजी ही नहीं, सामाजिक साधना भी है। अतः कई संस्थाएँ बनाकर
स्वयंसेवक समाज की जरूरत के अनुसार काम कर रहे हैं। वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती, सेवा भारती, विश्व हिंदू परिषद्, भारत विकास परिषद्, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, दीनदयाल शोध संस्थान, भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, विवेकानंद केंद्र आदि का इनमें विशेष योगदान
है।
इन संस्थाओं द्वारा
शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास से
रोजगार, ग्राम एवं कृषि विकास, कुरीति निवारण, नारी उत्थान और
स्वावलंबन, गौ संवर्धन जैसे हजारों
प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। अनुसूचित जाति और जनजातियाँ इनसे विशेष रूप से लाभान्वित
होती हैं। विश्व हिंदू परिषद् द्वारा विभिन्न जाति एवं जनजातियों के युवक एवं युवतियों को अयोध्या में श्रीराम कथा एवं
वृंदावन में श्रीकृष्ण कथा कहने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मंदिर में पूजा का
काम भी सभी जातियों के युवा कर सकें, इसके लिए आवश्यक कर्मकांड
का प्रशिक्षण केंद्र चेन्नई में है।
स्वयंसेवक जिस निर्धन बस्ती में काम करते हैं, वहाँ अपनी राजनीतिक दुकान लगाए नेता उनका विरोध करते हैं; पर कुछ समय बाद बस्तीवाले उन नेताओं को ही वहाँ से भगा देते हैं। क्योंकि सेवा के कार्य से उस बस्तीवालों का ही भला होता है। इसलिए राजनेता चाहे जितना चिल्लाएँ, पर सेवा प्रकल्पों के माध्यम से संघ का काम इन बस्तियों में लगातार बढ़ रहा है।
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