व्यथित हृदय आंबेडकर

मृत्युंजय कुमार झा

(स्वयंसेवक) आर.एस.एस


व्यथित हृदय आंबेडकर

   विदेश नीति, हिन्दू कोड बिल के विषय में टालमटोल की नीति, निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता का न होना आदि कई बातों का परिणाम था कि डॉ आंबेडकर ने मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दिया त्यागपत्र देते हुए अपने मन की व्यथा को अपने भाषण में बिना किसी लाग-लपेट के बताते हुए डॉ. आंबेडकर अंत में कहते हैं "यदि मैं मानता हूँ कि प्रधानमंत्री की कथनी और करनी में अंतर है, तो यह मेरा दोष नहीं है। मेरा कैबिनेट से बाहर जाना देश में किसी के लिए सोचने का विषय नहीं होना चाहिए, पर मैं अपने आप से सच्चा वफादार रहना चाहता हूँ और इसलिए बाहर जा रहा हूँ।"

मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के बाद डॉ. आंबेडकर अपने मन की बात खुल कर बोलने लगे। पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सत्तासीन कांग्रेस देश को सही दिशा में नहीं ले जा पाएगी तथा संविधान की मूल भावना के अनुरूप काम करने में भी नाकाम रहेगी, ऐसा उन्हें लगने लगा। 14 सितंबर 1953 के राज्यसभा में दिये उनके भाषण में कांग्रेस किस प्रकार संविधान के साथ खिलवाड़ कर रही है, इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था-

"एक और उदाहरण बंबई (अब मुंबई) से है। यहां मुख्यमंत्री जो अपने आपको सही स्थान पर सही व्यक्ति मानते हैं, हार गए। प्रश्न था कि क्या होना चाहिए? यहाँ से आदेश गया कि वे पार्टी के नेता थे और इसलिए प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रह सकते थे। मैं सरकार के संविधान से इस तरह की छेड़खानी से चौंक गया हूँ और यह मैं स्वीकार करता हूँ।

श्रीमान जी, बहुत लोग कांग्रेस के सत्ता में रहने से दुःखी हैं। मैं इससे दुःखी नहीं हूं, पर मैं संविधान के साथ कोई गलत काम नहीं करूँगा। जबकि सरकार में बैठे मेरे सम्माननीय मित्र हर प्रदेश में कांग्रेस सरकार लाना चाहते हैं।"

इसी भाषण के अंत में अपने मन की व्यथा तथा संविधान के अनुसार आचरण न होने की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा था -

"संविधान को इस तरह से क्यों तोड़ा-मरोड़ा जाता है? आप संविधान का अपमान करते हैं और यदि ऐसा प्रभाव पैदा करते हैं कि इसके प्रावधानों को दलगत राजनीति के लिए प्रयोग किया जा सकता है, तो मैं इस बात के लिए आपको कड़ी चेतावनी देता हूँ और इसमें मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं है तथा मैं किसी पद के लिए कभी कोई माँग नहीं करने जा रहा हूँ।

मैं आपको स्वतंत्र राय दे रहा हूँ कि संविधान का प्रयोग ठीक तरीके से करें, जिसके लिए इसे बनाया गया था। इससे आप न केवल अपने लिए बल्कि प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए भी आदर पैदा करेंगे, जिनकी इस देश में इस समय बेहद कमी है।"

पं. नेहरू द्वारा अपनायी गई विदेश नीति तथा उसके दुष्परिणामों की समीक्षा करते हुए राज्यसभा में हुई एक बहस के दौरान 26 अगस्त 1954 को दिये गए भाषण में उन्होंने कहा, "प्रधानमंत्री मुख्यतः 3 सिद्धांतों पर आगे बढ़ रहे हैं। पहला शांति का, दूसरा सभी समुदायों को साथ-साथ रहने और स्वतंत्र रूप से गणतंत्र रखने का तथा तीसरा सिद्धांत है सिएटो (सीईएटीओ) का विरोध। ये विदेश नीति के तीन मुख्य बिंदु हैं। इन सिद्धांतों की योग्यता को समझने के लिए हमें आजकल की समस्याओं की पृष्ठभूमि को समझना होगा, जिनके लिए यह सिद्धांत अब अपनाए गए हैं। इसकी पृष्ठभूमि में विश्व में कम्युनिझम् का फैलाव है।"

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद रूस ने शांति स्थापना की आड़ में 10 यूरोपीय देशों पर कब्जा कर लिया था। पं. नेहरू का रूस की ओर रूझान होना, उनकी नीतियों से प्रकट हो रहा था। कम्युनिझम् के साम्राज्यवादी मनसूबों को डॉ. आंबेडकर समझ रहे थे। अपने इसी भाषण में उन्होंने चेतावनी के स्वर में कहा था-

"इस पृष्ठभूमि में मैं सरकार के इन सिद्धांतों पर नजर डालता हूँ। पहले शांति के सिद्धांत के अनुसार हम शांति चाहते हैं और कोई भी लड़ाई नहीं चाहता। प्रश्न है कि शांति किस कीमत पर होनी चाहिए? क्या शांति को देश के विभाजन से पाना चाहिए?"

सन 1947 के विभाजन के बाद अब 1954 में डॉ. आंबेडकर किस विभाजन की ओर संकेत कर रहे थे, यह समझने के लिए इसी भाषण के अगले हिस्से पर गौर करना होगा। वे कहते हैं-

"भारत में भी आक्रमण का अंदेशा है, क्योंकि यह देश पाकिस्तान और दूसरे मुस्लिम देशों से घिरा है। अब जबकि मिस्र और इंग्लैंड के बीच की दीवार सुएझ नहर के कारण खत्म हो गई है, मुस्लिम देशों को पाकिस्तान के साथ मिलकर एक गुट बनाना आसान हो गया है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री ने चीन को तिब्बत (ल्हासा) का कब्जा देकर वास्तव में चीन को भारत की सीमा के समीप कर दिया है।" इन बातों को देखकर मुझे लगता है कि भारत पर आक्रमण कभी भी हो सकता है और यह आक्रमण उन लोगों की तरफ से हो सकता है, जिन्हें इसकी आदत है।

चीन का कम्युनिझम् की आड़ में अपने साम्राज्यवादी मनसूबों को क्रियान्वित करने की बात कितनी स्पष्ट है यह बताते हुए डॉ. आंबेडकर कहते हैं-

"हमारे प्रधानमंत्री माओ द्वारा निकाले पंचशील और जिसे प्रवेश न करने वाले तिब्बत समझौते में माना गया, पर विश्वास करते हैं। मुझे आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री पंचशील में विश्वास करते हैं क्योंकि यह बौद्ध धर्म में आवश्यक भाग है और यदि माओ को इसमें विश्वास होता तो बौद्धों को अपने देश में अच्छी तरह रखते। पंचशील का किसी कम्युनिस्ट देश की राजनीति में कोई स्थान नहीं है। उनके अपने अलग सिद्धांत होते हैं, जिसमें नैतिक मूल्यों को धुंधला रखा जाता है। आज की नैतिकता कल नहीं रहती और अपने शब्दों को नैतिकता की परिभाषा से ही कल तोड़ा जा सकता है, क्योंकि कल किसी और नैतिकता की बात होगी।"

जिन आशा-आकांक्षा से पूरी मेहनत एवं सैकड़ों विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श के बाद भारत का संविधान बना, उस संविधान का कांग्रेस और विशेषकर पं. नेहरू जिस तरह अपनी सत्ता को टिकाये रखने के लिये उपयोग करने लगे थे, यह देखकर डॉ. आंबेडकर बड़े दुखी थे। इसका कोई उपाय खोजा जाये, यही उनके लिए एक चुनौती बनी हुई थी।

 

 

साभार - लक्ष्मीनारायण भाला जी

के पुस्तक संविधान की जन्मकथा

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