गांधी जी द्वारा संघ का प्रत्यक्ष अवलोकन
मृत्युंजय कुमार झा
(स्वयंसेवक) आर.एस.एस
गांधी जी द्वारा संघ का प्रत्यक्ष अवलोकन
संघ की शाखाओं एवं प्रशिक्षण शिविरों को रहस्यमय रूप में प्रस्तुत करने का
कार्य सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद ही नहीं कर रहा था, बल्कि देश के भीतर भी संघ से सैद्धांतिक रूप से असहमत अनेक
राजनीतिक व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा इसकी आलोचना होती थी। इनमें से किसी को भी
शाखा की संरचना एवं इसके कैंपों के कार्यक्रमों की जानकारी नहीं थी। उन्हें इसके
प्रत्यक्ष अनुभव का कोई अवसर नहीं मिला था। महात्मा गांधी इस श्रेणी के
राजनीतिज्ञों में एकदम भिन्न थे। वह संघ के बारे में प्रत्यक्ष जानने और इसके
संस्थापक से मिलने के लिए उत्सुक थे। गांधीजी का केंद्र वर्धा था और नागपुर के बाद
वर्धा में संघ का सर्वाधिक प्रभावशाली संगठन बन चुका था। महात्मा गांधी के वर्धा
आश्रम के निकट ही संघ का वार्षिक शीतकालीन शिविर दिसंबर 1934 में लगने वाला था। एक पखवाड़ा पहले से ही स्वयंसेवक शिविर
की तैयारी कर रहे थे। गांधीजी ने सूक्ष्मता से उनकी प्रतिबद्धता, आपसी प्रेम और सहयोग की भावना और अनुशासन को
परखा। उनके मन में कैंप देखने की इच्छा और भी प्रबल हो गई और उन्होंने अपने सहयोगी
महादेव देसाई के सामने यह इच्छा प्रकट की। देसाई ने वर्धा के संघ के नेता एवं
मध्यप्रांत कांग्रेस के पूर्व महामंत्री आप्पाजी जोशी को पत्र भेजकर लिखा कि 'यद्यपि गांधीजी बहुत व्यस्त हैं फिर भी कुछ समय
निकालकर वह आपके कैंप में आना चाहते हैं। कृपया तिथि एवं समय सूचित करने का कष्ट
करें।'
आप्पाजी ने गांधीजी के आश्रम में जाकर उन्हें अपनी सुविधानुसार कैंप में आने
का निमंत्रण दिया। गांधीजी 25 दिसंबर 1934 को जमनालाल बजाज, मीरा बेन, महादेव देसाई एवं
अन्य आश्रमवासियों के साथ कैंप में आए थे।
इस तथ्य को भी झूठ बताकर यह कहा जाता रहा है कि संघ सम्मान प्राप्त करने के
लिए गांधीजी के नाम का दुरुपयोग करता है। आश्चर्य तो यह है कि मध्यप्रांत के
कांग्रेसी नेता ब्रिजलाल बियानी द्वारा नियंत्रित समाचारपत्र ने भी एक लेख लिखकर इसे झूठे प्रपंच की संज्ञा दी थी।' यह संघ विरोधी मानसिकता का प्रत्यक्ष उदाहरण है। महात्मा गांधी ने 1939 में संघ के साक्षात्कार की पुष्टि स्पयं ही संघ की सभा में भी की थी। 16 सितंबर 1947 को दिल्ली में संघ के कैंप में उन्होंने
स्वयंसेवकों को संबोधित किया था। 'हिंदुस्तान टाइम्स' ने उनके भाषण की रिपोर्ट में लिखा है- 'गांधीजी ने कहा कि वह
वर्षों पूर्व वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कैंप में गए थे। तब संघ के
संस्थापक डा. हेडगेवार जीवित थे। स्वर्गीय जमनालाल बजाज उन्हें कैंप में ले गए थे
और गांधीजी उनके (स्वयंसेवकों के) अनुशासन एवं उनके बीच छुआछूत की भावना बिल्कुल न
होने और उनकी सादगी से प्रभावित हुए थे।"
25 दिसंबर 1934 की सुबह छह बजे गांधीजी कैंप आए तब उन्होंने स्वयंसेवकों की तरह भगवा ध्वज को
संघ की रीति से प्रणाम किया। परेड एवं अन्य गतिविधियां देखने के बाद उन्होंने संघ
के स्वयंसेवकों से मिलने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने उनसे संघ के सामाजिक दर्शन, उद्देश्य और अनुशासन के संबंध में अनेक प्रश्न पूछे।
एक स्वयंसेवक से उन्होंने पूछा कि संघ के कैंप में राम और कृष्ण की तस्वीरें
लगी हैं। क्या तुम लोग शंकर और गणपति को भगवान नहीं मानते हो ? वह स्वयंसेवक का परिपक्व उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित रह गए कि हम राष्ट्र के
नायकों की तस्वीर लगाते हैं, भगवानों की नहीं। वह यह जानकर भी चकित थे कि
स्वयंसेवक अपने ही खर्च से कैंप में आए थे।
तब गांधीजी ने स्वयंसेवकों की जातियों को जानने का प्रयास किया। उन्हें तब और
भी आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि कैंप में ब्राह्मण, गैर ब्राह्मण एवं तथाकथित
अछूत (महार) सभी जातियों के स्वयंसेवक साथ-साथ रहते, खाते और खेलते थे। एक
स्वयंसेवक ने उनसे कहा कि हम न तो किसी की जाति जानते हैं न ही जानने की इच्छा
रखते हैं। हमारी तो एक ही जाति है,
वह है-हिंदू।
चार महीने पूर्व ही उन्होंने अपनी हरिजन यात्रा पूरी की थी। अतः इस तरह की
सकारात्मक भावना देखकर संघ के प्रति उनकी जिज्ञासा तो शांत हो गई, पर इसके संस्थापक के बारे में जानने और उनसे
मिलने की उत्सुकता बढ़ गई।
डा. हेडगेवार 26 दिसंबर को (कैंप
के समापन समारोह में) वर्धा आए तो उन्हें गांधीजी के आने का समाचार दिया गया। उसी
दिन वह दो साथियों के साथ गांधीजी से मिलने गए। दोनो के बीच संवाद के कुछ इस प्रकार: -
महात्मा गांधी:- आपको तो पता चल ही गया होगा कि मैं कैंप में गया था।
डा. हेडगेवार:- यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि आप शिविर में आए। आपके कार्यक्रम की मुझे
जानकारी नहीं थी, अन्यथा मैं भी
उपस्थित रहता।
महात्मा गांधी:- एक दृष्टि से यह अच्छा ही हुआ कि आप नहीं थे। मैंने खुलकर स्वयंसेवकों से बात
की और सभी बातों को जानने का प्रयास किया।
फिर महात्मा गांधी ने संघ की वित्त संबंधी जानकारी चाही। उनका अनुमान था कि
संघ को धनाढ्य लोगों से सहायता मिलती होगी। जमनालाल बजाज का नाम चंदा देने वालों
में प्रसिद्ध था। यह जानकर कि संघ आज तक बजाज या उनके जैसे धनाढ्यों से सहायता न
लेकर गुरु दक्षिणा के द्वारा धन संग्रह करता है, वह हैरान रह गए। डाक्टर हेडगेवार की कांग्रेसी पृष्ठभूमि को
जानकर उन्होंने पूछा कि कांग्रेस में आपके प्रयत्न सफल क्यों नहीं हुए ? क्या पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिली ?
डा. हेडगेवार:- पैसे की बात नहीं थी। कांग्रेस की मनोरचना एक राजनीतिक संगठन की है। राजनीति
में स्वयंसेवकों के बारे में धारणा मेज-कुर्सी उठाने वाले, दरियां बिछाने वाले मजदूरों की है। इस धारणा से राष्ट्र का
उत्थान करने वाले स्वतःस्फूर्त कार्यकर्ता कैसे उत्पन्न होंगे ?
महात्मा गांधी:- आपकी स्वयंसेवकों की क्या अवधारणा है?
डा. हेडगेवार:- संगठन में नेता और कार्यकर्ता-ये दो वर्ग नहीं होने
चाहिए। संघ में सभी स्वयंसेवक हैं। आत्मप्रेरणा से जब व्यक्ति समाज और राष्ट्र
के कार्य को महत्व देता है तब उसकी भूमिका दरी एवं मेज उठाने वाले की नहीं,
बल्कि राष्ट्र-निर्माण में नींव के पत्थर की
तरह हो जाती है। साधारण जीवन जीते हुए वह असाधारण कार्य करता है। अंतःकरण की एकता
एवं आत्मविश्वास के कारण ही अल्प धन एवं संकटों के बीच संघ नए-नए स्वयंसेवकों का
निर्माण कर पाता है।
महात्मा गांधी:- कल मैंने विभिन्न जातियों के स्वयंसेवकों को साथ- साथ सब काम करते हुए देखा।
यह सब आपने कैसे कर दिखाया ?
डा. हेडगेवार:- उनकी चेतना में राष्ट्रीयता का भाव एवं हिंदू होने का अभिमान जाग्रत करने के
कारण ही वे सभी संकीर्णताओं से ऊपर उठ गए हैं।
यह जानकर कि डा. हेडगेवार ने व्यवसाय एवं विवाह दोनों से अपने आप को मुक्त
रखकर अपना पूरा जीवन देश की स्वतंत्रता एवं हिंदू संगठन हेतु लगा दिया है, महात्मा गांधी प्रसन्न हुए। अपने वर्षों के
सार्वजनिक जीवन में एक कर्मठ, कुशल एवं
समष्टिवादी, ईमानदार और
महत्वाकांक्षारहित व्यक्ति से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने डा. हेडगेवार को संघ
कार्य की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं दीं। संघ के प्रति उनके मन में बनी छवि के
कारण ही देश विभाजन के बाद सरकार हिंदू और मुसलिम संगठनों के बीच परस्पर
सांप्रदायिकता एवं अन्याय, अत्याचार के
आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच वह बेहिचक संघ के कैंप में गए और उन्होंने ध्वज को
प्रणाम किया एवं स्वयंसेवकों के साथ प्रार्थना भी की।
इसीलिए गांधीजी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबंध लगा तब उनके द्वारा स्थापित
पत्र 'हरिजन' ने प्रतिबंध वापसी की मांग की थी। पत्र ने
सरकार के इस कदम को गांधीजी की भावनाओं एवं आदर्शों के विपरीत बताया था। वह
संपादकीय एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।
डा. हेडगेवार ने महात्मा गांधी को श्रेष्ठ पुरुष एवं राष्ट्र निर्माता के रूप
में आदर एवं सम्मान दिया था और उन्हीं की प्रेरणा से संघ ने गांधीजी को प्रातः स्मरणीय की सूची में सम्मिलित किया है।
एक बार एक सावरकरवादी एवं एक गांधीवादी के बीच संवाद हुआ कि सावरकर एवं गांधीजी
में श्रेष्ठ कौन है, तब हेडगेवार ने कहा था कि 'यह वाद ऐसा ही है जैसे गुलाब श्रेष्ठ है या मोगरा ! जैसे गुलाब मोगरा के समान
नहीं, वैसे मोगरा भी गुलाब के समान नहीं। यह सत्य होते हुए भी
सौंदर्य, सुंगध, कोमलता- तीनों आधारों पर दोनों में श्रेष्ठ कौन
है, यह विवाद हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में एक दूसरे के फूल को
कुचल डालने की जगह अपनी-अपनी मानसिक रचना के अनुसार अलग-अलग फूलों का आनंद लेना
चाहिए।'
मुसलिम तुष्टीकरण एवं राष्ट्रीयता को परिभाषित करने में डा. हेडगेवार एवं
महात्मा गांधी के बीच स्पष्ट मतभेद थे। लेकिन इन मतभेदों को डा. हेडगेवार ने
राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागी होने में रुकावट नहीं बनने दिया।
नागपुर एवं मराठी मध्यप्रांत में गांधीवाद का समर्थन आधार शुरू से कमजोर था।
कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के समर्थन के कारण भले ही तिलकवादियों का संगठन पर
से वर्चस्व समाप्त हो गया था, परंतु तिलकवादियों ने कभी भी गांधीवादी नेताओं
के पैर नहीं जमने दिए। प्रांत की राजनीतिक गतिविधियों के उद्गाता सभी तिलकवादी ही
थे।
डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय संग्राम के लिए इसे दुर्भाग्यपूर्ण माना एवं गांधीवादी आंदोलन को वह सतत समर्थन देते रहे। दोनों के बीच वैचारिक मतभेद के साथ-साथ हिंदू समाज में सुधार के प्रश्नों पर एक-दूसरे के प्रति सम्मान स्पष्ट झलकता है।
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