संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर (श्री गुरूजी) के विचार पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए आज भी प्रासंगिक।
संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर (श्री गुरूजी )के विचार को राजनेताओं को समझने की जरुरत
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर सन् 1940 से
मृत्युपर्यन्त 1973 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च पद 'सरसंघचालक' पर आसीन रहे।
श्री गुरुजी के तैंतीस वर्ष में प्रतिबंध काल के डेढ़ वर्ष छोड़ कर शेष समय वर्ष
में उन्होंने दो बार देश का भ्रमण किया। इस 66 बार की परिक्रमा में
स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्ताओं को सुयोग मार्गदर्शन व दिशा दी। इस सुदीर्घ कालखण्ड
में कई भाषणों, बैठकों, चर्चाओं व लेखों का बड़ा महत्त्व है, जिससे उनके
व्यक्तित्व का पता चलता है।
सन् 1940 से 1973 तक के तैंतीस वर्ष श्री गुरुजी के राष्ट्रनायकत्व के सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ष थे। यह काल उनके राष्ट्रीय जीवन में भी अत्यंत उथल-पुथल का था। द्वितीय महायुद्ध, 1942 का भारतछोड़ो आंदोलन, देश का दुःखद विभाजन, सहस्त्रावधि लोगों का बलिदान, लक्षावधि लोगों का देशांतरण, महात्मा गाँधी की हत्या, संघ पर प्रतिबंध और सत्याग्रह, तिब्बत पर चीनी कब्जा, भारत पर सन् 1962 का चीनी आक्रमण, सन् 1965 और 1971 के पाकिस्तानी आक्रमण आदि सारी ही क्षोभकारक घटनायें इसी कालखण्ड में घटित हुईं और एक कुशल खेवनहार के रूप में गुरुजी ने इन संकटों में से संघ को बाहर निकालने एवं देश को सुयोग्य मार्गदर्शन देने का कार्य किया।
गुरुजी जब सरसंघचालक बने थे, तब देश की दो प्रमुख धाराओं का संगम उनके व्यक्तित्व पर हुआ था। भारतीय नवोत्थान की यह विशेषता रही है कि प्रत्येक राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक नवरचना के पूर्व आध्यात्मिक जागरण होता रहा है। आधुनिक काल में आधुनिक पुनर्जागरण की धारा 19 वीं शताब्दी में महर्षि दयानंद से प्रारम्भ हुई व बाद में रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता, स्वामी रामतीर्थ, रविन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविंद एवं श्रीमाँ के माध्यम से आगे बढ़ते हुए उसने देश की सुप्त आध्यात्मिक चेतना को झकझोर दिया और जगाया। दूसरी धारा थी राजनैतिक जिसकी दो शाखायें थीं। एक शाखा सशस्त्र क्रांति के माध्यम से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने की थी जिसका आरम्भ सन् 1857 से हुआ था, व बाद में रामसिंह कूका, वासुदेव बलवंत फड़के, पझसी राजा, बिरसामुण्डा, तिलक माँझी, ताँतिया भील, तीरथ सिंह अल्लुरी, सीताराम राजू आदि से होती हुई खुदीराम बोस, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, सावरकर तथा सुभाष तक पहुँची। दूसरी शाखा जन आंदोलन के माध्यम से जन जागरण कर विदेशी सत्ता को देश की स्वतंत्रता देने हेतु बाध्य कर देने की थी। यह शाखा सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल, महात्मा गाँधी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर आदि के माध्यम से आगे बढ़ी। इन सब धाराओं का उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा।
सभी महापुरुषों के विचारों के समान इन विचारों में भी दो भाग हैं। एक जो शाश्वत कालजयी है और दूसरा जो देश-काल परिस्थिति व वातावरण से मर्यादित है। दूसरे प्रकार के विचार उस देशकाल, परिस्थिति में सार्थक होते हुए भी सन्दर्भ बदलने पर ज्यों के त्यों सार्थक होंगे ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनके दिशा संकेत भले मिले किन्तु ज्यों का त्यों लागू करने का आग्रह मात्र इज्म 'वाद' को जन्म देता है। इज्म या वाद यह है विचारों का दायरा, हर जगह इसकी व्याख्या को लेकर मतभेद, मनभेद हो सकते हैं। इसी के कारण आंदोलन बँटने के कम उदाहरण नहीं है। कम्यूनिज्म, सोशलिज्म, कैपिटलिज्म, गाँधीइज्म आदि सब इसी कारण बँटे हैं।
श्री गुरुजी ने अध्यात्म के स्थायी अनुष्ठान पर
ही अपने विचार प्रकट किये। किन्तु यह सब करते हुए भी समाज संगठन के स्थायी कार्य पर से उन्होंने दृष्टि नहीं हटने दी। वे कहते
हैं कि 'सब में एक तत्व विद्यमान है इसलिए सबके संतोष में स्वयं का
संतोष अनुभव करना भारतीय परम्परा में समाज जीवन का आधार है।" माधवराव
सदाशिवराव गोलवलकर का व्यक्तित्व बड़ा निर्मल एवं पारदर्शी था।
श्री गुरुजी की विद्वता, बुद्धिमत्ता, विवेचन, शक्ति, गहन विचार, धारणा शक्ति, स्थिर बुद्धि, धैर्य, तेजस्विता, दृढ़ता, आदि गुणों के परमोत्कर्ष के साथ-साथ अन्य मतों का समुचित समादर करने की उतनी ही उत्कृष्टता से प्रकट होने वाली विनयशीलता देखने पर उनका अलौकिक व्यक्तित्व एवं कृतित्व झलकता है।
सन् 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उस समय भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी थे। उन्होंने दिल्ली में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई। उस बैठक में श्री शास्त्री जी ने श्री गुरुजी को भी आमंत्रित किया। उस सर्वदलीय बैठक में एक नेता ने प्रधानमंत्री से प्रश्न किया कि 'आपकी सेना की योजना क्या है? सुनते ही बीच में टोकते हुए श्री गुरुजी ने कहा- 'आपकी सेना नहीं अपनी सेना कहना उचित होगा। यह संशोधन बहुत सरल और एक शब्द का ही है, किन्तु किसी भी स्थिति में उसका अपना महत्त्व है।
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जब जीवित थे उसके कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू अमेरिका से लौटते समय लंदन में रुके थे। उस समय वहाँ के समाजवादी कहलाने वाले भारतीय नागरिकों ने ही पं. जवाहर लाल नेहरू को काले झण्डे दिखाकर विरोध प्रकट किया था और अपने काले कलूटे अन्तःकरण का प्रदर्शन किया। 'पं. नेहरू मुर्दाबाद' उद्घोष भी उन्होंने किया। विदेशों में भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति इस प्रकार का व्यवहार भारत के साथ गद्दारी है। देश के अन्तर्गत व्यवहार में किसी प्रश्न पर भिन्न मत हो सकते हैं और शासन का विरोध भी किया जा सकता है किन्तु भारत के बाहर भारतीय नागरिकों द्वारा ही प्रधानमंत्री जी का अपमान किया जाना अनुचित है, अत्यंत अशोभनीय है। श्री गुरुजी ने समाचार पत्र पढ़ा तो कार्यकर्त्ताओं के सामने बोलते समय उन्होंने कहा- पं. नेहरू का अपमान भारत के प्रधानमंत्री का अपमान है, अतः यह भारत राष्ट्र का अपमान है। उन्होंने कहा- राजनीति मेरी प्रकृति नहीं है फिर भी यह समाचार पढ़कर मैं अत्यन्त व्यथित हुआ।
राष्ट्रीय अस्मिता के विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए श्री गुरुजी ने इंग्लैण्ड के भूतपूर्व प्र.म. विंस्टन चर्चिल का उदाहरण भी दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अल्पमत में, चर्चिल विरोधी दल के नेता थे। ऐसी स्थिति में जब किसी कार्यवश वे अमेरिका गये तब वहाँ के पत्रकारों नें उन्हें सत्तारूढ़ दल के संबंध में टेढ़े-मेढ़े प्रश्न पूछे उनके उत्तर में चर्चिल ने कहा- 'ठीक है कि अपने देश में मैं विरोधी दल का नेता हूँ, किन्तु यहाँ अमेरिका में मैं 'हरमेजेस्टी की सरकार का एक निष्ठावान प्रतिनिधि हूँ।" यह वास्तव में राष्ट्रभक्ति है। श्री गुरुजी राष्ट्रभक्ति के ऐसे उदाहरण भी रखते थे।
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