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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दलित

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मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दलित दलित शब्द कब , कहाँ और क्यों प्रचलित हुआ , इस पर कई मत हैं। कहते हैं कि विदेशी हमलावरों ने जिन क्षेत्रों को जीता , वहाँ तलवार के बल पर धर्मांतरण कराया गया। धर्मांतरित लोगों को पुरस्कृत और शेष का व्यापक संहार किया गया। जो फिर भी बच गए , उनका दलन और दमन कर घृणित कामों में लगा दिया गया। सैकड़ों साल तक ऐसा होने पर ये लोग ' दलित ' कहलाने लगे , जबकि ये प्रखर हिंदू थे। इनमें से अधिकांश क्षत्रिय थे और इनके राज्य भी थे ; पर पढ़ने का अधिकार तथा खेती की जमीनें छिनने से इनकी सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक और शैक्षिक दशा बिगड़ती गई और ये अलग-थलग पड़ गए। अंग्रेजों ने अपने समय में जनगणना के दौरान षड्यंत्रपूर्वक इन भेदों को और बढ़ाया। आजकल सरकारी भाषा में इस वर्ग को ' अनुसूचित जाति ' कहते हैं।      आजादी के बाद सबने सोचा था कि यह स्थिति बदलेगी ; पर वोट के लालची सत्ताधीशों ने कुछ नहीं किया। अब चूँकि ये बहुत बड़ा वोटबैंक बन चुके हैं , इसलिए सब दलों की इन पर निगाह है। अतः सभी दल एक-दूसरे को दलित-विरोधी बताते हैं। कई...

संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर (श्री गुरूजी) के विचार पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए आज भी प्रासंगिक।

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मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर (श्री गुरूजी )के विचार को राजनेताओं को समझने की जरुरत         माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर सन् 1940 से मृत्युपर्यन्त 1973 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च पद ' सरसंघचालक ' पर आसीन रहे। श्री गुरुजी के तैंतीस वर्ष में प्रतिबंध काल के डेढ़ वर्ष छोड़ कर शेष समय वर्ष में उन्होंने दो बार देश का भ्रमण किया। इस 66 बार की परिक्रमा में स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्ताओं को सुयोग मार्गदर्शन व दिशा दी। इस सुदीर्घ कालखण्ड में कई भाषणों , बैठकों , चर्चाओं व लेखों का बड़ा महत्त्व है , जिससे उनके व्यक्तित्व का पता चलता है।       सन् 1940 से 1973 तक के तैंतीस वर्ष श्री गुरुजी के राष्ट्रनायकत्व के सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ष थे। यह काल उनके राष्ट्रीय जीवन में भी अत्यंत उथल-पुथल का था। द्वितीय महायुद्ध , 1942 का भारतछोड़ो आंदोलन , देश का दुःखद विभाजन , सहस्त्रावधि लोगों का बलिदान , लक्षावधि लोगों का देशांतरण , महात्मा गाँधी की हत्या , संघ पर प्रतिबंध और सत्याग्रह , तिब्बत पर चीनी कब...

वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा

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    मृत्युंजय कुमार झा         (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस वामपंथी इतिहासकारों ने   इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा इस देश के वामपंथी इतिहासकारों ने अपने आख्यान और झूठे प्रचार को स्थापित करने के लिए भारत के सच्चे इतिहास को क्षति पहुँचाई है। रोमिला थापर , बिपिन चंद्र और एस गोपाल , इरफान हबीब , आरएस शर्मा , डीएन झा , सूरज भान और अख्तर अली जैसे इतिहासकारों के समूह ने झूठे आख्यानों का निर्माण किया है और लंबे समय तक गौरवशाली हिंदू अतीत को अंधेरे युग के रूप में रेखांकित किया है और मुगल काल को भारत के स्वर्ण युग के रूप में बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया। उन्होंने भारत में मुस्लिम शासन के दौरान बड़े पैमाने पर धर्मांतरण और हिंदू लोगों के शोषण की अनदेखी की। हम इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या से उत्पन्न जिन समस्याओं को हल करना चाहते हैं , उनमें से एक का उल्लेख बेल्जियम के प्राच्यविद् और भारतविद् कोनराड एल्स्ट भारत में निषेधवाद के रूप में करते हैं। भारतीय इतिहास और हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर अपने लेखन के लिए जाने जाने वाले एल्स्ट का कहना है कि एक तरफ जहां यूरोप में निषेधवाद का अर्थ द्व...

खेलों की संस्कारशाला : संघ की शाखा

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  मृत्युंजय कुमार झा         (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस   खेलों की संस्कारशाला  संघ की शाखा भोजन , पानी और हवा की तरह खेल भी व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। बालपन में तो यह उसका अधिकार ही है। बच्चे मुख्यतः शारीरिक प्रधान खेल खेलते हैं , जबकि बड़े होने पर उसमें कुछ मानसिक खेल भी जुड़ जाते हैं। विश्व की सभी सभ्यताओं में खेलों को महत्त्व दिया गया है। अनेक प्राचीन नगरों के उत्खनन में बच्चों के खिलौने तथा शतरंज , चौपड़ आदि मिले हैं। सभ्यता एवं संपन्नता के विकास के साथ उपकरण आधारित खेल बने। इनमें क्रिकेट , हॉकी , फुटबॉल , वॉलीबॉल , बास्केट बॉल , बैडमिंटन , टेनिस , लॉन टेनिस आदि उल्लेखनीय हैं। इन सबका विकास पश्चिम में ही हुआ। टी.वी. के जीवंत प्रसारण तथा महँगी प्रतियोगिताओं ने इन्हें लोकप्रिय बनाया है। कंप्यूटर और मोबाइल ने भी खेलों में क्रांति की है। बच्चे हों या बड़े , सब उन पर उँगलियाँ चलाते हुए अपना समय काटते हैं और साथ में अपनी आँखें भी खराब करते हैं। इन खेलों का कितना उपयोग है , यह बहस का विषय है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई ...

नागरिकता, राष्ट्रीयता

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मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस नागरिकता , राष्ट्रीयता नागरिकता संविधान में यद्यपि एक ही नागरिकता या सिंगल सिटीजनशिप कहा गया है परन्तु भाषाई अल्पसंख्यक , धार्मिक अल्पसंख्यक , अनुसूचित अल्पसंख्यक आदि को अलग-अलग सुविधाएं प्रदान करने के कारण सब पर समान रूप से सब कानून लागू नहीं हो पाते। जैसे बढ़ती जन-संख्या पर काबू पाने के लिए हम दो-हमारे दो का नारा दिया गया परन्तु यह सर्वविदित है कि इस्लाम ने चार-चार विवाहों की छूट दे रखी है और उन्हें यहां अल्पसंख्यक की श्रेणी में रखा जाने के कारण उस नारे का उनके लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता। जन-संख्या का संतुलन बिगड़ कर सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को बिगड़ता हुआ हम देख रहे हैं परन्तु द्विधाग्रस्त मानसिकता से संविधान ही प्रभावित है तो आम नागरिक क्या करे ? धारा 44 में निहित समान नागरिक कानून इस समस्या का एक मात्र समाधान हो सकता है परंतु दुविधा से ग्रस्त संविधान की ही कुछ धाराएं उसके क्रियान्वयन में बाधक बन जाती हैं। राष्ट्रीयता राष्ट्र की पहचान उसकी राष्ट्रीयता ही है। भारत बहुत प्राचीन राष्ट्र है। कई भले-बुरे दिन देखते हुए भी विश्व में आदि ...

व्यथित हृदय आंबेडकर

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मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस व्यथित हृदय आंबेडकर    विदेश नीति , हिन्दू कोड बिल के विषय में टालमटोल की नीति , निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता का न होना आदि कई बातों का परिणाम था कि डॉ आंबेडकर ने मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दिया ।   त्यागपत्र देते हुए अपने मन की व्यथा को अपने भाषण में बिना किसी लाग-लपेट के बताते हुए डॉ. आंबेडकर अंत में कहते हैं "यदि मैं मानता हूँ कि प्रधानमंत्री की कथनी और करनी में अंतर है , तो यह मेरा दोष नहीं है। मेरा कैबिनेट से बाहर जाना देश में किसी के लिए सोचने का विषय नहीं होना चाहिए , पर मैं अपने आप से सच्चा वफादार रहना चाहता हूँ और इसलिए बाहर जा रहा हूँ।" मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के बाद डॉ. आंबेडकर अपने मन की बात खुल कर बोलने लगे। पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सत्तासीन कांग्रेस देश को सही दिशा में नहीं ले जा पाएगी तथा संविधान की मूल भावना के अनुरूप काम करने में भी नाकाम रहेगी , ऐसा उन्हें लगने लगा। 14 सितंबर 1953 के राज्यसभा में दिये उनके भाषण में कांग्रेस किस प्रकार संविधान के साथ खिलवाड़ कर रही है , इसका उदाहरण देते हुए उन...

पंथनिरपेक्षता ही हमारा धर्म है

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  मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस पंथनिरपेक्षता ही हमारा धर्म है जिस  देश के संसद भवन के प्रवेश द्वारों पर तथा दीवारों पर धर्म से संबंधित कई बोध वाक्य लिखे हो उस देश को धर्मनिरपेक्ष कहना एक विडंबना ही है और इस विडंबना का प्रमुख कारण है सेक्युलर इस शब्द का गलत अनुवाद करके उसे ही सही मानना और उसे प्रचलित करना। क्युलर का संविधान में भी एक जगह "पंथनिरपेक्ष” और दूसरी जगह "लौकिक" इस  रुप में अनुवाद किया गया है परंतु फिर भी हम अपने आप को धर्मनिरपेक्ष  कह कर अपना ही मजाक  उड़ा रहे हैं। राज्यसभा  ओर  लोकसभा के दीवारों पर लिखे इन बोध वाक्यों पर थोड़ी नजर डालें_ • सत्यं वद धर्म चर                               • अहिंसा परमोधर्मः • वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्           • धर्मं स न यत्र न सत्यमस्तु •  धर्मचक्र प्रवर्तनाय वास्तव में मानवोचित लौकिक कर्म को ही धर्म कहा गया है। धर्म सापेक्ष होना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य होना चाहि...

गांधी जी द्वारा संघ का प्रत्यक्ष अवलोकन

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  मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस गांधी जी द्वारा संघ का प्रत्यक्ष अवलोकन संघ की शाखाओं एवं प्रशिक्षण शिविरों को रहस्यमय रूप में प्रस्तुत करने का कार्य सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद ही नहीं कर रहा था , बल्कि देश के भीतर भी संघ से सैद्धांतिक रूप से असहमत अनेक राजनीतिक व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा इसकी आलोचना होती थी। इनमें से किसी को भी शाखा की संरचना एवं इसके कैंपों के कार्यक्रमों की जानकारी नहीं थी। उन्हें इसके प्रत्यक्ष अनुभव का कोई अवसर नहीं मिला था। महात्मा गांधी इस श्रेणी के राजनीतिज्ञों में एकदम भिन्न थे। वह संघ के बारे में प्रत्यक्ष जानने और इसके संस्थापक से मिलने के लिए उत्सुक थे। गांधीजी का केंद्र वर्धा था और नागपुर के बाद वर्धा में संघ का सर्वाधिक प्रभावशाली संगठन बन चुका था। महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम के निकट ही संघ का वार्षिक शीतकालीन शिविर दिसंबर 1934 में लगने वाला था। एक पखवाड़ा पहले से ही स्वयंसेवक शिविर की तैयारी कर रहे थे। गांधीजी ने सूक्ष्मता से उनकी प्रतिबद्धता , आपसी प्रेम और सहयोग की भावना और अनुशासन को परखा। उनके मन में कैंप देखने की इच्छा और भी...

वंदे मातरम आंदोलन और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

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  मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस वंदे मातरम आंदोलन और डॉ.  केशव  बलिराम हेडगेवार सन 1901 का वर्ष नागपुर और केशव दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। इस वर्ष अंग्रेजी राज के खिलाफ इस शहर में संगठित छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई और इस कार्य की योजना एवं क्रियान्वयन केशव के द्वारा ही हुआ। बंग विभाजन के बाद सरकारी दमनचक्र की तीव्रता पूरे देश में बढ़ती जा रही थी। बंगाल में, राजनीतिक आंदोलन में विद्यार्थियों की अहम भूमिका को देखते हुए सरकार ने एक नोटिस जारी किया। इसके द्वारा विद्यार्थियों के राजनीतिक गतिविधियों अथवा आंदोलनों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके अतिरिक्त 'वंदे मातरम्' एवं 'तिलक महाराज की जय' जैसे नारे लगाने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया। यह नोटिस 'रिस्ले सर्कुलर' के नाम से प्रसिद्ध था। इसके पूर्व बंगाल में सरकार ने ऐसा ही एक 'कार्लाइल सर्कुलर' निकाला था। महर्षि अरविंद घोष ने 'वंदे मातरम्' समाचारपत्र में 'टू मीनिंग ऑफ रिस्ले सर्कुलर' नामक लेख लिखकर साम्राज्यवादी सरकार पर आरोप लगाया कि वह छात्रों एवं युवाओं को देशभक्ति की धा...

आजादी के लिए संघर्षरत कांग्रेस को डॉ. हेडगेवार का पूर्ण समर्थन

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  मृत्युंजय कुमार झा (स्वयंसेवक)  आर.एस.एस आजादी के लिए संघर्षरत कांग्रेस  को  डॉ. हेडगेवार   का  पूर्ण समर्थन भारत में चल रहे सभी प्रकार के स्वतंत्रता आंदोलनों , सशस्त्रक्रांति के प्रयत्नों , समाज सुधार के लिए कार्यरत विभिन्न संस्थाओं तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जागरण में जुटी सभी धार्मिक संस्थाओं का निकट से अध्ययन करने के लिए डॉ. साहब इनके सभी कार्यकलापों में यथासम्भव भागीदारी करते थे। उनका यह निश्चित मत था कि देश के शत्रुओं को जिस किसी भी मार्ग से भारत भूमि से निकाला जा सके , वही उचित तथा योग्य है। इसी दृष्टिकोण एवं लक्ष्यप्रेरित मानसिकता के साथ डॉ. हेडगेवार ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में संचालित अहिंसावादी आंदोलनों में शामिल होने का निश्चय किया। उनके सामने एकमात्र अंतिम लक्ष्य अपनी मातृभूमि की पूर्ण स्वतंत्रता था। शेष सब प्रकार के मार्ग एवं तात्कालिक उद्देश्य उनके लिए किसी अंतिम ध्येय के विभिन्न रास्ते थे। यही वजह थी कि कांग्रेस द्वारा प्रायोजित आंदोलनों में पूरी शक्ति के साथ शिरकत करते हुए भी डॉ. हेडगेवार ने क्रांतिकारियों की सब प्रकार की...